|
अभीप्सा
सच्ची अभीप्सा का ठीक-ठीक अर्थ क्या है ?
ऐसी अभीप्सा जिसमें किसी पक्षपात भरे और अहंकारपूर्ण हिसाब-किताब का मिश्रण न हो । १२ जनवरी, १९३४ *
'दिव्य प्रेम' सहज रूप से तुम्हारी अभीप्सा की सचाई को उत्तर देता है । २० अक्तूबर, १९३४ *
अपनी पवित्र और ऋजु अभीप्सा को उस चरम चेतना की ओर छलांग लगाने दो जो समस्त हर्ष और परम आनन्द है । *
आविर्भाव के आगमन में शीघ्रता और पूर्णता के लिए हमें अपनी समस्त सत्ता के साथ अभीप्सा करनी चाहिये । २ फरवरी, १९३५
अभीप्सा की प्रार्थना
आओ, हम एक प्रार्थना के साथ सोयें और 'नयी और पूर्ण सृष्टि' की अभीप्सा के साथ जगें । *
अभीप्सा की लगन : उसके अतृप्य उत्साह के लिए न कोई चीज बहुत
७९ अधिक ऊंची है, न बहुत दूर ।
*
अभीप्सा को अभिव्यक्त करने में कभी कोई हानि नहीं होती--इससे उसे शक्ति मिलती है ।
*
अभीप्सा हमेशा अच्छी है, पर अगर कोई मांग उसमें मिला दी जाये तो निश्चित जानो कि वह कभी स्वीकृत न होगी ।
*
अभीप्सा करते चलो और आवश्यक प्रगति होकर रहेगी । ७ अप्रैल, १९५४
*
हमें हर रोज सभी भूलों, सभी अन्धकारों, सभी अज्ञानों पर विजय पाने की अभीप्सा करनी चाहिये । १५ अप्रैल, १९५४
*
हमें हमेशा अज्ञान से मुक्त होने और एक सच्ची श्रद्धा पाने के लिए अभीप्सा करनी चाहिये । २९ अप्रैल, १९५४ *
सतत अभीप्सा सभी विकारों पर विजय पा लेती है । २१ मई, १९५४ *
दिन-पर-दिन हमारी अभीप्सा बढ़ेगी और हमारी श्रद्धा तीव्र होगी । २३ मई १९५४ *
८० जब अभीप्सा जाग्रत् होती है तो प्रत्येक दिन हमें लक्ष्य के अधिक निकट लाता है । १५ जुलाई, १९५४
*
हर एक केवल अपनी अभीप्सा की सचाई के लिए उत्तरदायी है । १७ जुलाई, १९५४
*
हमारी अभीप्सा हमेशा एक रूप में उठती है, एकाग्र संकल्प उसे सहारा देता है । १ नवम्बर, १९५४
*
सत्ता में सब कुछ मौन है, लेकिन नीरवता के वक्ष में वह दीपक जलता है जिसे कभी बुझाया नहीं जा सकता-वह उस तीव्र अभीप्सा की अग्नि है जो भगवान् को जानना और उन्हें सम्पूर्ण रूप से जीना चाहती है । ६ नवम्बर, १९५४
*
अभीप्सा की लौ इतनी सीधी और इतनी तीव्र होनी चाहिये कि कोई बाधा उसे क्षीण न कर सके । ७ नवम्बर, १९५४
*
शब्दों के परे विचारों के ऊपर तीव्र अभीप्सा की ज्वाला को हमेशा निष्कंप और उज्ज्वल होकर जलते रहना चाहिये ।
मेरा प्रेम और आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं । ५ मार्च १९५५
*
८१
हृदय की नीरवता में अभीप्सा की निष्कंप ज्वाला जलती है । *
अग्नि को अनवरत जलने दो और शान्ति से निश्चित परिणाम की प्रतीक्षा करो ।
*
अभीप्सा की ज्वाला : एक ऐसी ज्वाला जो प्रकाश देती है पर कभी जलाती नहीं ।
*
पूर्ण और ऐकान्तिक अभीप्सा निश्चय ही भगवान् का उत्तर लायेगी । ३१ अगस्त, १९५७ *
८२ (आश्रम के एक छात्रावास ''होम ऑफ प्रोग्रेस '' के लिए सन्देश)
अगर मनुष्य में अभीप्सा के बीज को सच्ची अध्यात्मिकता से सींचा जाये तो वह 'देवत्व' में पनपेगा । २४ अप्रैल, १९६६
*
हमेशा की तरह मैं तुम्हें स्थिर ओर शान्त रहने के लिए कहूंगी । हमारी एकमात्र अभीप्सा आध्यात्मिक प्रगति के लिए होनी चाहिये । केवल उसी के लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिये । प्रेम और आशीर्वाद सहित । १२ दिसम्बर, ११६७
*
दृढ़ता के साथ अपनी अभीप्सा को बढ़ाओ । भगवान् के प्रति अपने उत्सर्ग को पूर्ण बनाने की चेष्टा करो और तुम्हारे लिए तुम्हारे जीवन की व्यवस्था कर दी जायेगी । ८ जून, १९६१
*
कोई सुझाव?
किसलिए ?
साधना के लिए ।
धीर अभीप्सा । ७ जून, १९७०
*
मुझे जो प्रगति करनी हे उसमें असफल न होने के लिए मुझे क्या करना चाहिये ?
८३ सतत और पूर्ण अभीप्सा । ३ अगस्त, १९७०
*
में अधिक-से-अधिक श्रद्धा और स्थिरता कैसे पा सकता हूं: माताजी ?
अभीप्सा और संकल्प द्वारा ।
*
मानसिक अभीप्सा : इसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट, यथार्थ और बहुत विवेकपूर्ण होती है । *
सच्ची अभीप्सा मन की नहीं बल्कि चैत्य की क्रिया है । २२ मई, १९७१
*
चैत्य अभीप्सा : सतत, नियमित, व्यवस्थित, साथ-ही-साथ कोमल और धैर्यवान् भी होती है, सभी विरोधों का प्रतिरोध करती है और सभी कठिनाइयों को जीतती है ।
*
आध्यात्मिक अभीप्सा तीर की तरह उठती है, वह न बाधाओं की परवाह करती है न फिसड्डियों की ।
*
वर दे कि अभीप्सा का सूर्य अहंकार के बादलों को छितरा दे ।
*
(एक सेमिनार के लिए सन्देश जिसकी व्यवस्था 'महाराष्ट्र श्री-रविन्द्र जन्म-शताब्दी उत्सव कमेटी' ने की थी)
८४ प्रगति के लिए अपनी अभीप्सा में सच्चे बनो ।
प्रेम और आशीर्वाद । १९७२
अभीप्सा, पुकारना और खींचना
अभीप्सा करना और सहायता के लिए पुकारना एकदम अनिवार्य है ।
*
माताजी, तीव्र अभीप्सा और शक्ति को नीचे खींच लाने में क्या भेद हे ?
प्राण है जो नीचे खींचता है और चैत्य है जो अभीप्सा करता है । २० फरवरी, १९७३
*
पुकारने और खींचने में निश्चित रूप से बहुत बड़ा अन्तर है-तुम हमेशा सहायता और अन्य चीजों के लिए पुकार सकते हो और तुम्हें करना भी चाहिये, बाकी सब-यानी उत्तर तुम्हारी आत्मसात् करने की योग्यता और ग्रहणशीलता की सामर्थ्य के अनुपात में मिलेगा । खींचना एक स्वार्थपूर्ण क्रिया है जो ऐसी शक्तियों को नीचे खींच सकती है जो तुम्हारे सामर्थ्य के अनुपात में न हों और इस तरह हानिप्रद हों ।
८५ |